मुख के अन्दर स्थान-स्थान पर हवा को दबाने (के अवरोध करने) से भिन्न-भिन्न वर्णों का उच्चारण होता है। मुख के अन्दर पाॅंच विभाग हैं, जिनको स्थान कहते हैं। इन पाॅंच विभागों में से प्रत्येक विभाग में एक-एक स्वर उत्पन्न होता है। स्वर उसको कहते हैं, जो एक ही आवाज में बहुत देर तक बोला जा सके, जैसे—
अ — आ
इ — ई
उ — ऊ
ऋ — ॠ
ऌ — ॡ
ऋ एवं लृ स्वरों के उच्चारण के विषय में विशेष सावधानी रखना चाहिए। उत्तर भारत के लोग इनका उच्चारण री तथा हरी ऐसा करते हैं, यह बहुत ही अशुद्ध है। कभी ऐसा उच्चारण नहीं करना चाहिए। री में र ई ऐसे दो वर्ण मूर्धा और तालु स्थान के हैं। ऋ यह केवल मूर्धा- स्थान का शुद्ध स्वर है। केवल मूर्धा स्थान के शुद्ध स्वर का उच्चारण मूर्धा और तालु स्थान दो वर्ण मिलाकर करना अशुद्ध है और उच्चारण की दृष्टि से बड़ी भारी गलती है।
ॠ का उच्चारण — धर्म शब्द बहुत लम्बा बोला जाए और ध और म के बीच का रकार बहुत बार बोला जाए (समझने के लिए) तो उसमें से एक रकार के आधे के बराबर है। इस प्रकार जो ऋ बोला जा सकता है, वह एक जैसा लम्बा बोला जा सकता है। छोटे लड़के आनन्द से अपनी जिह्वा को हिलाकर इस ऋकार को बोलते हैं।
जो लोग इसका उच्चारण री करते हैं उनको ध्यान देना चाहिए कि री लम्बी बोलने पर केवल ई लम्बी रहती है। जोकि तालु स्थान की है। इस कारण ऋ का यह री उच्चारण सर्वथैव अशुद्ध है।
लृकार का हरी उच्चारण भी उक्त कारणों से अशुद्ध है। उत्तरीय लोगों को चाहिए कि वे इन दो स्वरों का शुद्ध उच्चारण करें। अस्तु।
पूर्व स्थान में कहा है कि जिनका लम्बा उच्चारण हो सकता है, वे स्वर कहलाते हैं। गवैये लोग स्वरों को ही अलाप सकते हैं, व्यञ्जनों को नहीं, क्योंकि व्यञ्जनों का लम्बा उच्चारण नहीं होता। इन पाॅंच स्वरों में भी अ इ उ ये तीन स्वर अखण्डित, पूर्ण हैं। और ऋ, लृ ये खण्डित स्वर हैं। पाठकगण इनके उच्चारण की ओर ध्यान देंगे तो उनको पता लगेगा कि इनको खण्डित तथा अखण्डित क्यों कहते हैं। जिनका उच्चारण एक रस नहीं होता, उनको खण्डित बोलते हैं ।
इन पाॅंच स्वरों से व्यञ्जनों की उत्पत्ति हुई है, क्रमश: —
मूल स्वर
अ इ ऋ ऌ उ
इनको दबाकर उच्चारण करते-करते एकदम उच्चारण बन्द करने से क्रमश: निम्न व्यञ्जन बनते हैं।
ह य र ल व
इनका मुख से उच्चारण होने के समय हवा के लिए कोई रुकावट नहीं होती। जहाॅं इनका उच्चारण होता है, उसी स्थान पर पहले हवा का प्राघात करके, फिर उक्त व्यञ्जनों का उच्चारण करने से निम्न व्यञ्जन बनते हैं —
घ झ द ध भ
इनको जोर से बोला जाता है। इनके ऊपर जो बल जोर होता है, उस जोर को कम करके यही वर्ण बोले जाएं तो निम्न वर्ण बनते हैं —
ग ज ड द ब
इनका जहाॅं उच्चारण होता है, उसी स्थान के थोड़े से ऊपर के भाग में विशेष बल न देने से निम्न वर्ण बनते हैं —
क च ट त प
इनका हकार के साथ जोरदार उच्चारण करने से निम्न वर्णं बनते हैं—
ख छ ठ थ फ
अनुस्वारपूर्वक इनका उच्चारण करने से इन्हीं के अनुनासिक बनते हैं—
अङ्क, पञ्च, घण्टा, इन्द्र, कम्बल
सकार का तालु, मूर्धा तथा दन्त स्थान में उच्चारण किया जाए तो क्रम से, श, ष, स, ऐसा उच्चारण होता है। ल का मूर्धा स्थान में उच्चारण करने से ळ बनता है ।
इस प्रकार वर्णों की उत्पत्ति होती है। इस व्यवस्था से वर्णों के शुद्ध उच्चारण का भी पता लग सकता है।
ऊपर जहाॅं-जहाॅं व्यञ्जन लिखे हैं वे सब क, ख, ग ऐसे अकारान्त लिखे हैं। इससे उच्चारण करने में सुगमता होती है।
वास्तव में वे क्, ख्, ग् ऐसे—अकार-रहित हैं, इतनी बात पाठकों के ध्यान धरने योग्य है।
वर्णों के ऊपर बहुत विचार संस्कृत में हुआ है।
संस्कृत में कोमल पदार्थों के नाम कोमल वर्णों में पाए जाते हैं, जैसे— कमल, जल, अन्न आदि।
कठोर पदार्थों के नामों में कठोर वर्ण पाए जाएंगे, जैसे — खर, प्रस्तर, गर्दभ, खड्ग आदि।
कठोर प्रसंग के लिए जो शब्द होंगे, उनमें भी कठोर वर्ण पाए जाएंगे, जैसे— युद्ध विद्रावित, भ्रष्ट, शुष्क, आदि।
आनन्द के प्रसंगों के लिए जो शब्द होंगे, उनमें कोमल अक्षर पाए जाएंगे, जैसे — आनन्द, ममता, सुमन, दया आदि।