पञ्चमः पाठः 'सूक्तिमौक्तिकम्' (विषय - संस्कृत कक्षा- 9) हिन्दी अनुवाद (सारांश), अभ्यास (प्रश्नोत्तर)
पाठः परिचयः (पाठ का परिचय)
प्रस्तुतोऽयं पाठः नैतिकशिक्षाणां प्रदायकरूपेण वर्तते। अस्मिन् पाठांशे विविधग्रन्थेभ्यः सङ्ग्रहणं कृत्वा नानानैतिकशिक्षाबोधकपद्यानि गृहीतानि सन्ति। अत्र सदाचरणस्य महिमा, प्रियवाण्याः आवश्यकता, परोपकारिणां स्वभावः, गुणार्जनस्य प्रेरणा, मित्रतायाः स्वरूपम्, श्रेष्ठसङ्गतेः प्रशंसा तथा च सत्सङ्गतेः प्रभावः इत्यादीनां विषयाणां निरूपणम् अस्ति। संस्कृतसाहित्ये नीतिग्रन्थानां समृद्धा परम्परा दृश्यते। तत्र प्रतिपादितशिक्षाणाम् अनुगमनं कृत्वा जीवनसाफल्यं कर्तुं शक्नुमः।
हिन्दी अनुवाद ― यह प्रस्तुत पाठ नैतिक शिक्षाओं को प्रदान करने वाला है। इस पाठ के अंश में विभिन्न ग्रन्थों से संग्रहण करके अनेक नैतिक शिक्षाओं का बोध कराने वाले पद्य लिए गए हैं। इसमें सदाचार की महिमा, प्रियवाणी की आवश्यकता, परोपकारियों का स्वभाव, गुणार्जन की प्रेरणा, मित्रता का स्वरूप, श्रेष्ठ संगति की प्रशंसा और सत्संगति का प्रभाव इत्यादि विषयों का निरूपण है। संस्कृत साहित्य में नीतिग्रन्थों की परम्परा दिखाई देती है। इनमें बताई गई शिक्षाओं का अनुसरण करके जीवन को सफल कर सकते हैं।
पाठ का हिन्दी अनुवाद एवं भावार्थ
[1] वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः॥ [मनुस्मृतिः]
अन्वयः ― वृत्तं यत्येन संरक्षेद् वित्तम् एति च याति च। वित्ततः क्षीणः अक्षीणः भवति वृत्ततः (क्षीण) तु हतः हतः।
भावार्थ ― मनुष्य को अपने चरित्र (आचरण) की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। धन तो आता-जाता रहता है। धन के नष्ट हो जाने पर मनुष्य क्षीण नहीं होता अर्थात् उसका चरित्र सुरक्षित रहता है लेकिन चरित्र के नष्ट होने पर सब कुछ नष्ट हो जाता है।
[2] श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥ [विदुरनीतिः]
अन्वयः ― धर्मसर्वस्वं श्रूयतां श्रुत्वा च एव अवधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।
भावार्थ ― धर्म (कर्तव्य पालन का ज्ञान) का सार क्या है, सुनो। और सुनकर इसका अनुगमन (धारण) करना चाहिए। स्वयं को जो अच्छा न लगे वह व्यवहार दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए।
[3] प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्माद् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता॥ [चाणक्यनीतिः]
अन्वयः ― सर्वे जन्तवः प्रियवाक्यप्रदानेन तुष्यन्ति। तस्माद् तत् एव वक्तव्यं वचने दरिद्रता का?
भावार्थ ― सभी प्राणी मीठी वाणी बोलने से प्रसन्न (सन्तुष्ट) होते हैं। इसलिए वही (मीठी वाणी) बोलनी चाहिए, बोलने में कैसी कंजूसी? अर्थात् मीठी वाणी में असीम शक्ति होती है। मीठी वाणी से शत्रु भी मित्र बन जाते हैं।
[4] पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः।
नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः परोपकाराय सतां विभूतयः॥
[सुभाषितरत्नभाण्डागारम्]
अन्वयः ― नद्यः स्वयम् एव अम्भः न पिबन्ति, वृक्षाः स्वयं फलानि न खादन्ति। वारिवाहाः खलु सस्यं न अदन्ति, सतां विभूतयः परोपकाराय (एव भवन्ति)।
भावार्थ ― नदियाँ स्वयं ही अपना पानी नहीं पीती हैं। वृक्ष स्वयं अपने फल नहीं खाते हैं। निश्चित हो बादल (अपनी) फसलों को नहीं खाते हैं। इसी प्रकार से सज्जनों की सम्पत्तियाँ परोपकार के लिए होती है। अर्थात् महान् लोगों की सम्पत्तियाँ, साधन और यहाँ तक कि जीवन भी परोपकार के लिए होता है।
[5] गुणेष्वेव हि कर्तव्यः प्रयत्नः पुरुषः सदा।
गुणयुक्तो दरिदोऽपि नेश्वरैरगुणैः समः॥ [मृच्छकटिकम्]
अन्वयः ― पुरुषैः सदा गुणेषु एव ही प्रयत्नः कर्त्तव्यः। गुणयुक्तः दरिद्रः अपि अगुणैः ईश्वरैः समः न (न भवति)।
भावार्थ ― मनुष्य को सदा गुणों को ही प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। गुणवान् व्यक्ति निर्धन होते हुए भी गुणों से हीन ऐश्वर्यशाली के समान नहीं हो सकता अर्थात् वह उससे कहीं अधिक श्रेष्ठ होता है।
[6] आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।
[नीतिशतकम्]
अन्वयः ― आरम्भगुर्वी (भवति) क्रमेण क्षयिणी (भवति) पुरा लध्वी पश्चात् च वृद्धिमती (भवति) दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्ध- छाया इव खलसज्जनानाम् मैत्री भिन्ना (भवति)।
भावार्थ ― आरम्भ में लम्बी (बड़ी) फिर धीरे-धीरे घटते (कम होते) स्वभाव वाली तथा पहले छोटी फिर बाद में लम्बी (बड़ी) होती हुई दिन के पूर्वाह्न और अपराह्न काल की छाया की तरह दुष्टों और सज्जनों की मित्रता भी अलग-अलग होती है।
अर्थात् जिस प्रकार दिन के पूर्वाह्न में छाया पहले बड़ी होती है और धीरे-धीरे छोटी होती चली जाती है। उसी प्रकार दुष्टों को मित्रता भी पहले ज्यादा और बाद में कम होती चली जाती है। इसके विपरीत अपराह्न की छाया जिस प्रकार पहले कम और धीरे-धीरे बढ़ती जाती है उसी प्रकार सज्जनों की मित्रता भी पहले कम और शनैः-शनैः प्रगाढ़ होती जाती है।
[7] यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु- ईसा महीममण्डलमण्डनाय।
हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां येषा मरालैः सह विप्रयोगः॥
[भामिनीविलासः]
अन्वयः ― हंसाः यत्र अपि कुत्र अपि महीमण्डलमण्डनाय गताः भवेयुः हानि तु तेषाम् सरोवरणाम् हि (भवति) येषां (सरोवराणाम्) मरासैः सह विप्रयोगः (भवति)।
भावार्थ ― हंस पृथ्वी को सुशोभित करने के लिए जहाँ कहीं भी चले जाएँगे (उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता)। पर हानि तो उन तालाबों की होती है जिनका हंसों के साथ वियोग होता है।
अर्थात् श्रेष्ठ, सज्जन कहीं भी रहें वे अपने गुणों से संसार को लाभान्वित ही करेंगे, पर वह जिस स्थान से चले जाएँगे वह स्थान निश्चित ही उनके लाभों से वंचित रह जाएगा।
[8] गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः।
आस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति नद्यः समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः॥
[हितोपदेशः]
अन्वयः ― गुणाः गुणज्ञेषु गुणाः भवन्ति, ते (गुणाः) निर्गुणं प्राप्य दोषाः भवन्ति। आस्वाद्यतोयाः नद्यः प्रवहन्ति ताः एव नद्यः समुद्रम् आसाद्य अपेयाः भवन्ति।
भावार्थ ― गुणों को जानने पहचानने वालों के लिए ही वास्तव में गुण, होते हैं, गुणहीनों के लिए तो वे दोष ही होते हैं। नदियाँ स्वादिष्ट जल के साथ बहती रहती हैं, पर समुद्र में मिलकर वह भी पीने योग्य नहीं रह जातीं।
शब्दार्थाः
वृत्तम् = चरित्र/आचरण [चरित्रम्/आचरणम्]।
यत्येन प्रयत्नपूर्वक [प्रयत्नपूर्वकम्]।
वित्तम् = धन [धनम्]।
एति = आता है [आगच्छति]।
याति = जाता है [गच्छति]।
अक्षीणः = नष्ट न हुआ/क्षीण नहीं होता [न क्षीणः सम्पन्नः]।
हतः हतः = सब-कुछ नष्ट हो जाता है [सर्वस्य हानिः]।
श्रूयताम् = सुनो [श्रवणं करोतु]।
धर्मसर्वस्वम् धर्म (कर्तव्य पालन का ज्ञान) का सार [धर्मस्य सारः]।
श्रुत्वा = सुनकर [श्रवणं कृत्वा]।
अवधार्यताम् = धारण/अनुगमन करना चाहिए [धारणं/अनुगमनम् कुर्यात्]।
आत्मनः = स्वयं के [स्वस्य]।
प्रतिकूलानि = जो अच्छा न लगे/अनुकूल नहीं [विपरीतानि]।
परेषाम् दूसरों के साथ [अन्येषाम्]।
समाचरेत् करना चाहिए [कुर्यात् ]।
प्रदानेन = बोलने से [उच्चारणेन]।
जन्तवः = प्राणी [प्राणिनः]।
तुष्यन्ति = प्रसन्न /सन्तुष्ट होते हैं [तोषम् अनुभवन्ति।
तस्माद् इसलिए [एतेन कारणेन]।
तदेव = वही [मधुरा वाणी]।
नद्यः = नदियाँ [सरितः]।
अम्भः = पानी [जलम्]।
खलु = निश्चित ही [निश्चयेन]।
वारिवाहाः = बादल [मेघाः]।
सस्यम् = फसल [अन्नम्]।
अदन्ति = खाते हैं [खादन्ति ]।
सताम् = सज्जन [सज्जनानाम्]।
विभूतयः = सम्पत्तियाँ [समृद्धयः]।
पुरुषैः = मनुष्य को [मनुष्यैः]।
कर्तव्यः = करना चाहिए [करणीयः]।
एव = ही।
दरिद्रः = निर्धन [धनरहितः]।
ईश्वरैः = समान [सदृशः ] ।
आरम्भगुर्वी = आरम्भ में लम्बी [आदौ दीर्घा]।
क्रमेण = धीरे-धीरे [क्रमशः]।
क्षयिणी = घटते स्वभाव वाली [क्षयशीला।
पुरा = पहले [पूर्वे]।
लघ्वी = छोटी [न्यूना]।
वृद्धिमती = लम्बी होती हुई [वृद्धिम् उपागता]।
पश्चात् = बाद में [अग्रे]।
पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना = पूर्वाह्न और अपराहन [ पूर्वार्द्धन परार्द्धन च]।
खलसज्जनानाम् = दुष्टों और सज्जनों की [दुर्जनसज्जनानाम्]।
यत्रापि = जहाँ भी।
कुत्रापि = कहीं भी।
महीमण्डलमण्डनाय = पृथ्वी को सुशोभित करने के लिए [ पृथिवीमण्डलालङ्करणाय]।
गताः भवेयुः = चले जाएँ [गच्छन्तु]।
तेषाम् = उनकी [तेषाम् सरोवराणाम्]।
मरालैः = हंसों से [हंसैः]।
विप्रयोगः = अलग होना [वियोगः]।
सह = साथ।
गुणज्ञेषु = गुणों को जानने-पहचानने वालों के लिए [गुणज्ञातषु जनेषु]।
निर्गुणम् = गुणहीन को [गुणरहितम्]।
आस्वाद्यतोयाः स्वादिष्ट (स्वादयुक्त) जल के साथ [स्वादनीयजलसम्पन्नाः]।
आसाद्य = पाकर/मिलकर [प्राप्य]।
अपेयाः = न पीने योग्य [न पेयाः/न पानयोग्याः]।
पाठ का अभ्यास (प्रश्नोत्तर)
प्रश्न 1. एकपदेन उत्तरं लिखत―
(एक शब्द में उत्तर लिखिए।)
(क) वित्ततः क्षीणः कीदृशः भवति?
(धन से क्षीण कैसा होता है?)
उत्तर― अक्षीणः
(क्षीण नहीं)।
(ख) कस्य प्रतिकूलानि कार्याणि परेषां न समाचरेत्?
(किसके प्रतिकूल कार्यों को दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए?)
उत्तर― आत्मनः
(स्वयं के)।
(ग) कुत्र दरिद्रता न भवेत्?
(कहाँ दरिद्रता नहीं होनी चाहिए?)
उत्तर― वचने
(बोलने में)।
(घ) वृक्षाः स्वयं कानि न खादन्ति?
(वृक्ष स्वयं क्या नहीं खाते हैं?)
उत्तर― फलानि
(फलों को)।
(ङ) पुरा का लघ्वी भवति?
(पहले क्या छोटी होती है?)
उत्तर― छाया
(छाया)।
प्रश्न 2. अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत―
(नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर संस्कृत भाषा के द्वारा लिखो।)
(क) यत्नेन किं रक्षेत् वित्तं वृत्तं वा?
(प्रयत्नपूर्वक किसकी रक्षा करनी चाहिए धन की या चरित्र की?)
उत्तर― यत्नेन वृत्तं रक्षेत्।
(ख) अस्माभिः (किं न समाचरेत्)
कीदृशम् आचरणं न कर्त्तव्यम्?
(हमारे द्वारा (क्या नहीं करना चाहिए) कैसा आचरण नहीं करना चाहिए?)
उत्तर― अस्माभिः आत्मनः प्रतिकूलम् आचरणं परेषां न कर्तव्यम्।
(हमारे द्वारा स्वयं को जो अच्छा न लगे ऐसा व्यवहार दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए।)
(ग) जन्तवः केन तुष्यन्ति?
(प्राणी किस विधि से प्रसन्न होते हैं?)
उत्तर― जन्तवः प्रियवाक्यप्रदानेन तुष्यन्ति।
(प्राणी मीठी वाणी बोलने से प्रसन्न होते हैं।)
(घ) सज्जनानां मैत्री कीदृशी भवति?
(सज्जनों की मित्रता कैसी होती है?)
उत्तर― सज्जनानां मैत्री पुरा लघ्वी वृद्धिमती च पश्चात् भवति।
(सज्जनों की मित्रता पहले छोटी और बाद में बढ़ने वाली होती है।)
(ङ) सरोवराणां हानिः कदा भवति?
(सरोवरों की हानि कब होती है?)
उत्तर― सरोवराणां हानिः मरालैः सह वियोगेन भवति।
(सरोवरों की हानि हंसों के साथ वियोग से होती है।)
प्रश्न 3. 'क' स्तम्भे विशेषणानि 'ख' स्तम्भे च विशेष्याणि दत्तानि तानि यथोचितं योजयत―
('क' स्तम्भ में विशेषण और 'ख' स्तम्भ में विशेष्य दिए गये हैं, उनको सही-सही मिलाओ।)
'क' स्तम्भः ―― 'ख' स्तम्भः
(क) आस्वाद्यतोयाः - सज्जनानां मैत्री
(ख) गुणयुक्तः - दरिद्रः
(ग) दिनस्य पूर्वार्द्धभिन्ना - नद्यः
(घ) दिनस्य परार्द्धभिन्ना - खलानां मैत्री
उत्तर―
'क' स्तम्भः ―― 'ख' स्तम्भः
(क) आस्वाद्यतोयाः - नद्यः
(ख) गुणयुक्तः - दरिद्रः
(ग) दिनस्य पूर्वार्द्धभिन्ना - खलानां मैत्री
(घ) दिनस्य परार्द्धभिन्ना - सज्जनानां मैत्री
प्रश्न 4. अधोलिखितयोः श्लोकद्वयोः आशयं हिन्दीभाषया आङ्ग्लभाषया वा लिखत―
(नीचे लिखे दो श्लोकों का आशय हिन्दी अथवा अंग्रेजी भाषा में लिखो।)
(क) आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ॥
भावार्थ― आरम्भ में लम्बी (बड़ी) फिर धीरे-धीरे घटते (कम होते) स्वभाव वाली तथा पहले छोटी फिर बाद में लम्बी (बड़ी) होती हुई दिन के पूर्वाह्न और अपराह्न काल की छाया की तरह दुष्टों और सज्जनों की मित्रता भी अलग-अलग होती है।
(ख) प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता॥
भावार्थ― सभी प्राणी मीठी वाणी बोलने से प्रसन्न (सन्तुष्ट) होते हैं। इसलिए वही (मीठी वाणी) बोलनी चाहिए, बोलने में कैसी कंजूसी? अर्थात् मीठी वाणी में असीम शक्ति होती है। मीठी वाणी से शत्रु भी मित्र बन जाते हैं।
प्रश्न 5. अधोलिखितपदेभ्यः भिन्नप्रकृतिकं चित्वा लिखत―
(नीचे लिखे शब्दों में से भिन्न प्रकृति के शब्द को चुनकर लिखो।)
(क) वक्तव्यम्, कर्तव्यम्, सर्वस्वम्, हन्तव्यम्।
उत्तर― सर्वस्वम्।
(ख) यत्नेन, वचने, प्रियवाक्यप्रदाने, मरालेन।
उत्तर― वचने।
(ग) श्रूयताम्, अवधार्यताम्, धनवताम्, क्षम्यताम्।
उत्तर― धनवताम्।
(घ) जन्तवः नद्यः, विभूतयः, परितः।
उत्तर― परितः।
प्रश्न 6. स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्नवाक्यनिर्माणं कुरुत―
(मोटे शब्दों के आधार पर प्रश्न वाक्यों का निर्माण करो।)
(क) वृत्ततः क्षीणः हतः भवति।
(चरित्र से हीन का सब कुछ नष्ट होता है।)
प्रश्न निर्माणम्― कस्मात् क्षीणः हतः भवति?
(किससे हीन का सब कुछ नष्ट होता है?)
(ख) धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा अवधार्यताम्।
(धर्म का सार सुनकर धारण करना चाहिए।)
प्रश्न निर्माणम्― किं श्रुत्वा अवधार्यताम् ?
(क्या सुनकर धारण करना चाहिए?)
(ग) वृक्षाः फलं न खादन्ति।
(वृक्ष फल नहीं खाते हैं।)
प्रश्न निर्माणम्― के फलं न खादन्ति?
(कौन फल नहीं खाते हैं?)
(घ) खलानाम् मैत्री आरम्भगुर्वी भवति।
(दुष्टों की मित्रता प्रारम्भ में बढ़ने वाली होती है।)
प्रश्न निर्माणम्― केषाम् मैत्री आरम्भगुर्वी भवति?
(किनकी मित्रता प्रारम्भ में बढ़ने वाली होती है?)
प्रश्न 7. अधोलिखितानि वाक्यानि लोट्लकारे परिवर्तयत―
(नीचे लिखे वाक्यों को लोट्लकार में बदलिए।)
यथा ― सः पाठं पठति।
उत्तर― सः पाठं पठतु।
(क) नद्यः आस्वाद्यतोयाः सन्ति।
उत्तर― नद्यः आस्वाद्यतोयाः सन्तु।
(ख) सः सदैव प्रियवाक्यं वदति।
उत्तर― सः सदैव प्रियवाक्यं वदतु।
(ग) त्वं परेषां प्रतिकूलानि न समाचरसि।
उत्तर― त्वं परेषां प्रतिकूलानि न समाचार।
(घ) ते वृत्तं यत्नेन संरक्षन्ति।
उत्तर― ते वृत्तं यत्नेन संरक्षन्तु।
(ङ) अहं परोपकाराय कार्यं करोमि।
उत्तर― अहं परोपकाराय कार्यं करवाणि।
आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।
Thank you.
R. F. Tembhre
(Teacher)
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