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वर्णों की उत्पत्ति संस्कृत छंद रचना पाठ-1 'डाल-डाल पर, ताल-ताल पर' संस्कृत स्वर वर्ण (प्लुत वर्ण) संस्कृत व्यञ्जन वर्ण ऋ और ऌ का उच्चारण संस्कृत वदतु (संस्कृत बोलिए) रिस्ते-नातों के संस्कृत नाम संस्कृत में समय ज्ञान संस्कृत में शुभकामनाएँ स्तुति श्लोकाः (कक्षा-6) प्रथमः पाठः- शब्दपरिचयः (6th संस्कृत) वन्दना (संस्कृत कक्षा 7) हिन्दी अर्थ प्रथमः पाठः चत्वारि धामानि अनुवाद अभ्यास वन्दना शब्दार्थ व भावार्थ (कक्षा 8 संस्कृत) प्रथमः पाठः लोकहितम मम करणीयम् मङ्गलम् प्रथमः पाठः भारतीवसन्तगीतिः द्वितीयः पाठः कर्तृक्रियासम्बन्धः द्वितीयः पाठः कालबोधः द्वितीयः पाठः कालज्ञो वराहमिहिरः मङ्गलम् प्रथमः पाठः शुचिपर्यावरणम् द्वितीयः पाठः 'बुद्धिर्बलवती सदा' तृतीयः पाठः सर्वनामशब्दाः (भाग- 1) तृतीयः पाठः सर्वनामशब्दाः (भाग- 2) तृतीयः पाठ: बलाद् बुद्धिर्विशिष्यते चतुर्थः पाठ: चाणक्यवचनानि चतुर्थः पाठ: सङ्ख्याबोधः पंचम: पाठः रक्षाबंधनम् द्वितीयः पाठः स्वर्णकाकः तृतीयः पाठः शिशुलालनम् तृतीयः पाठः गोदोहदम् (भाग -१) तृतीयः पाठः 'गोदोहनम्' (भाग - २) तृतीयः पाठः गणतन्त्रदिवसः चतुर्थः पाठः नीतिश्लोकाः वन्दना (कक्षा 3 संस्कृत) वन्दना (कक्षा 4 संस्कृत) वन्दना (कक्षा 5 संस्कृत) पञ्चमः पाठः अहम् ओरछा अस्मि चतुर्थः पाठः कल्पतरुः (9th संस्कृत) पञ्चमः पाठः 'सूक्तिमौक्तिकम्' (9th संस्कृत) 'पुष्पाणां नामानि' (कक्षा 3) संस्कृत खण्ड अभ्यास कक्षा 4 संस्कृत – प्रथमः खण्डः वचनपरिचयः फलानां नामानि कक्षा 3 (संस्कृत खण्ड) अभ्यास प्रथम खण्डः चित्रकथा (कक्षा 5)










चतुर्थः पाठः कल्पतरुः (9th संस्कृत)


Text ID: 67
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चतुर्थः पाठः 'कल्पतरुः' (कक्षा- 9 संस्कृत) हिन्दी अनुवाद (सारांश), शब्दार्थ एवं ब्लूप्रिंट आधारित प्रश्नोत्तर

पाठः परिचयः (पाठ का परिचय)

प्रस्तुतोऽयं पाठः "वेतालपञ्चविंशतिः" इति प्रसिद्धकथासङ्ग्रहात् सम्पादनं कृत्वा संगृहीतोऽस्ति । अत्र मनोरञ्जकघटनाभिः विस्मयकारिघटनाभिश्च जीवनमूल्यानां निरूपणं वर्तते। अस्यां कथायां पूर्वकालतः एव स्वगृहोद्याने स्थितकल्पवृक्षेण जीमूतवाहनः लौकिकपदार्थान् न याचते। अपितु सः सांसारिकप्राणिनां दुःखानि अपाकरणाय वरं याचते। यतो हित लोकभोग्याः भौतिकपदार्थाः जलतरङ्गवद् अनित्याः सन्ति। अस्मिन् संसारे केवलं परोपकारः एव सर्वोत्कृष्टं चिरस्थायी तत्वम् अस्ति।

हिन्दी अनुवाद ― प्रस्तुत यह पाठ "वेतालपंचविंशति" इस प्रसिद्ध कथासंग्रह से सम्पादित करके संगृहीत है। इसमें मनोरंजक और विस्मयकारी घटनाओं के द्वारा जीवन मूल्यों का निरूपण है। इस कथा में पूर्व के समय से ही अपने घर के बगीचे में स्थित कल्पवृक्ष से जीमूतवाहन लौकिक पदार्थों को नहीं माँगता है। बल्कि वह सांसारिक प्राणियों के दुःखों को दूर करने के लिए वरदान माँगता है। क्योंकि संसार के भोग्य भौतिक पदार्थ पानी की लहर के समान स्थिर न रहने वाले हैं। इस संसार में केवल परोपकार ही सबसे उत्कृष्ट और सदा स्थिर रहने वाला तत्व है।

पाठ एवं इसका हिन्दी अनुवाद

अस्ति हिमवान् नाम सर्वरत्नभूमिः नगेन्द्रः। तस्य सानोः उपरि विभाति कञ्चनपुरं नाम नगरम्। तत्र जीमूतकेतुः इति श्रीमान् विद्याधरपतिः वसति स्म। तस्य गृहोद्याने कुलक्रमागतः कल्पतरुः स्थितः। स राजा जीमूतकेतुः तं कल्पतरुम् आराध्य तत्प्रसादात् च बोधिसत्वांशसम्भवं जीमूतवाहनं नाम पुत्रं प्राप्नोत्। सः जीमूतवाहनः महान् दानवीरः सर्वभूतानुकम्पी च अभवत्। तस्य गुणैः प्रसन्नः स्वसचिवैश्च प्रेरितः राजा कालेन सम्प्राप्तयौवनं तं यौवराज्येअभिषिक्तवान्। कदाचित् हितैषिणः पितृमन्त्रिणः यौवराज्ये स्थितं तं जीमूतवाहनम् उक्तवन्तः - "युवराज ! योऽयं सर्वकामदः कल्पतरुः तवोद्याने तिष्ठति स तव सदा पूज्यः। अस्मिन् अनुकूले स्थिते शक्रोऽपि अस्मान् बाधितुं न शक्नुयात्" इति।

हिन्दी अनुवाद― सभी रत्नों का स्थान (भूमि) हिमालय नामक पर्वतों का राजा है। उसके शिखर (चोटी) पर कंचनपुर नामक नगर सुशोभित था। वहाँ जीमूतकेतु यह श्रीमान् विद्याधरों (एक प्रकार की देवताओं की योनि) के राजा रहता था। उसके घर के उद्यान में कुल परम्परा से प्राप्त हुआ एक कल्पवृक्ष स्थित था। उस राजा जीमूतकेतु ने उस कल्पवृक्ष की आराधना (पूजा) करके और उसकी कृपा से बोधिसत्व अंश से उत्पन्न जीमूतवाहन नामक पुत्र को प्राप्त किया। वह जीमूतवाहन महान् दानवीर और सभी प्राणियों पर कृपा करने वाला हुआ। उसके गुणों से प्रसन्न और अपने मंत्रियों के द्वारा प्रेरित हुए राजा ने समय (आने) पर युवावस्था को प्राप्त उस (जीमूतवाहन) का युवराज के पद पर अभिषेक कर दिया। कभी हितैषी पिता के मन्त्री युवराज पद पर स्थित उस जीमूतवाहन से बोले- "युवराज ! जो यह सभी कामनाओं को पूरा करने वाला कल्पवृक्ष तुम्हारे उद्यान में खड़ा है वह तुम्हारे द्वारा सदैव पूज्य है। इसके अनुकूल रहने पर इन्द्र भी हमें कोई बाधा नहीं पहुँचा सकता।"

एतत् आकर्ण्य जीमूतवाहनः अचिन्तयत्-"अहो ईदृशम् अमरपादपं प्राप्यापि पूर्वैः पुरुषैः अस्माकं तादृशं फलं किमपि न प्राप्तम्। किन्तु केवलं कैश्चिदेव कृपणैः कश्चिदपि अर्थः अर्थितः। तदहम् अस्मात् कल्पतरोः अभीष्टं साधयामि" इति। एवम् आलोच्य सः पितुः अन्तिकम् आगच्छत्। आगत्य च सुखमासीनं पितरम् एकान्ते न्यवेदयत् "तात! त्वं तु जानासि एव यदस्मिन् संसारसागरे आशरीरम् इदं सर्वं धनं वीचिवत् चञ्चलम्। एकः परोपकार एवं अस्मिन् संसारे अनश्वरः यो युगान्तपर्यन्तं यशः प्रसूते। तद् अस्माभिः ईदृशः कल्पतरुः किमर्थं रक्ष्यते? यैश्च पूर्वैरयं 'मम मम' इति आग्रहेण रक्षितः, ते इदानीं कुत्र गताः? तेषां कस्यायम्? अस्य वा के ते ? तस्मात् परोपकारैकफलसिद्धये त्वदाज्ञया इमं कल्पपादपम् आराध्यामि।

हिन्दी अनुवाद― यह सुनकर जीमूतवाहन ने सोचा- "अरे खेद है। इस प्रकार के अमरवृक्ष को पाकर भी हमारे पूर्वजों ने वैसा कुछ भी फल प्राप्त नहीं किया। किन्तु केवल कुछ ही अभागों ने थोड़ा-सा (तुच्छ) ही धन माँगा। तो मैं इस कल्पवृक्ष से मनचाहे को पूरा करूंगा।" इस प्रकार का विचार करके वह पिता के पास में आया। और आकर आराम से बैठे पिता से एकान्त में निवेदन किया- "पिताजी! आप तो जानते ही हैं कि इस संसार रूपी सागर में शरीर के साथ- साथ यह सम्पूर्ण धन लहर (तरङ्ग) की तरह चञ्चल (अस्थिर) है। एक परोपकार ही इस संसार में नष्ट न होने वाला (अनश्वर) है जो युगों तक यश को देता है। फिर हमारे द्वारा ऐसे कल्पवृक्ष की किसलिए रक्षा की जाती है? और जिन पूर्वजों के द्वारा इसकी "मेरा हैं मेरा है" इस प्रकार दृढ़ता के साथ रक्षा की गई, वे अब कहाँ गए? उनमें से यह किसका है? अथवा इसके वे कौन हैं? इसलिए परोपकार रूपी एकमात्र फल को प्राप्त करने के लिए आपकी आज्ञा से इस कल्पवृक्ष की आराधना करता (करना चाहता हूँ।

अथ पित्रा 'तथा' इति अभ्यनुज्ञातः स जीमूतवाहनः कल्पतरुम् उपगम्य उवाच - "देव! त्वया अस्मत्पूर्वेषाम् अभीष्टाः कामाः पूरिताः, तन्ममैकं कामं पूरय। यथा पृथिवीम् अदरिद्राम् पश्यामि, तथा करोतु देव" इति। एवं वादिनि जीमूतवाहने "त्यक्तस्त्वया एषोऽहं यातोऽस्मि" इति वाक् तस्मात् तरोः उदभूत।
क्षणेन च स कल्पतरुः दिवं समुत्पत्य भुवि तथा वसूनि अवर्षत् यथा न कोऽपि दुर्गत आसीत्। ततस्तस्य जीमूतवाहनस्य सर्वजीवानुकम्पया सर्वत्र यशः प्रथितम्।

हिन्दी अनुवाद― इसके पश्चात् पिता से 'वैसा (इच्छानुसार) ही करो' की अनुमति पाया हुआ वह जीमूतवाहन कल्पवृक्ष के पास जाकर बोला- "हे देव! आपके (तुम्हारे) द्वारा हमारे पूर्वजों की मनचाही इच्छाओं को पूरा किया गया है, तो मेरी (भी) एक इच्छा को पूरा कर दीजिए जिससे (इस) पृथ्वी (संसार) को निर्धनता रहित देख सकूँ, हे देव! वैसा (कुछ) कीजिए।" जीमूतवाहन के ऐसा कहने पर "तुम्हारे द्वारा छोड़ा (मुक्त किया गया यह मैं जा रहा हूँ" इस प्रकार की आवाज उस वृक्ष से निकली और थोड़ी ही देर में उस कल्पवृक्ष ने आकाश में उड़कर पृथ्वी पर उतनी धन की वर्षा की जिससे कोई (भी) निर्धन नहीं रहा। इससे उस जीमूतवाहन की सभी जीवों के प्रति कृपा करने की कीर्ति सब जगह प्रसिद्ध (फैल) हो गई।

शब्दार्थाः (शब्दों के अर्थ)

हिमवान् = हिमालय [हिमालयः]
नगेन्द्रः = पर्वतों का राजा [पर्वतराजः]।
सानोः = शिखर के, चोटी के [शिखरस्य]।
उपरि = ऊपर/पर [उपरिभागे]।
विभाति = सुशोभित होता है [विराजते।
श्रीमान् = श्रीमान/शोभा सम्पन्न [शोभा सम्पन्नः]।
विद्याधरपतिः = विद्याधरों (एक प्रकार की देवताओं की योनि) का राजा [विद्याधराणां राजा]।
गृहोधाने = घर के उद्यान में [गृहस्य उद्याने]।
कुलक्रमागतः = कुल परम्परा से प्राप्त हुआ [कुलक्रमाद् आगतः कुलपरम्परया सम्प्राप्तः]।
आराध्य = आराधना (पूजा) करके [पूजयित्वा ]।
प्रसादात् = कृपा से [कृपायाः]।
सम्भवम् = उत्पन्न [उत्पन्नम्]
स्व = अपने [निज]।
सचिवैः = मंत्रियों के द्वारा [अमात्यैः]।
यौवराज्ये = युवराज के पद पर [युवराजपदे]।
उक्तवन्तः = बोले [अकथयत्]।
योऽयम् = जो यह [यः अयम्।
सर्वकामदः = सभी कामनाओं को पूरा करने वाला [सर्वकामना पूरकः]
तवोद्याने = तुम्हारे उद्यान में [तव उपवने]।
शक्रोऽपि = इन्द्र भी [इन्द्रः अपि]।
शक्नुयात् = सकता [सक्षमः अस्ति]।
एतत् आकर्ण्य = यह सुनकर [एतत् श्रुत्वा]।
अहो = अरे खेद है [अरे खेदम् अस्ति]।
ईदृशम् = इस प्रकार के [एतादृशम्]।
अमरपादपम् = अमर वृक्ष को [अमरं वृक्षम्]।
कृपणैः = अभागों के द्वारा/ने [भाग्यहीनैः]।
अर्थितः = माँगा [याचितः]।
तदहम् अस्मात् = तो मैं इससे [तद् + अहम् + अस्मात्, तर्हि अहम् एतस्मात्]।
साधयामि = पूरा करूँगा [पूर्ण करोमि]।
एवम् इस प्रकार का [इति]।
आलोच्य = विचार करके [विचार्य]।
पितुः अन्तिकम् आगच्छ = पिता के पास आया।
आसीनम् = बैठे [उपविष्टम् ]।
पितरम् एकान्ते = पिता से एकान्त में।
न्यवेदयत् = निवेदन किया [निवेदनम् अकरोत्]।
तात = पिताजी [पिता]।
आशरीरम् = शरीर के साथ-साथ [शरीरपर्यन्तम्]।
विचिवत् = लहर/तरङ्ग की तरह [जलतरङ्गस्य इव। एव ही]।
प्रसूते = देता है/पैदा करता है [उत्पन्नं करोति]।
द् अदमाभिः ईदृशः = फिर हमारे द्वारा ऐसे [एतेन कारणे वयम् एवम्]।
आग्रहेण = दृढ़ता के साथ [दृढ़तया]।
इदानीम् = इस समय [वर्तमानसमये।
पादपम् = वृक्ष को [वृक्षम् ]।
आराधयामि = आराधना करता हूँ [पूजयामि]।
अथ = इसके पश्चात् [तत्पश्चात्]।
पित्रा = पिता से [जनकेन]।
इति = इस प्रकार की [एवम्]।
अभ्यनुज्ञातः = अनुमति पाया हुआ [अनुमतः]।
उपगम्य = पास जाकर [निकटं गत्वा]।
उवाच = बोला [अवदत्]।
त्वया = तुम्हारे द्वारा [त्वम्]।
अस्मत्पूर्वेषाम् = हमारे पूर्वजों की [अस्माकं पूर्वजनाम्]।
कामाः = इच्छाओं को [मनोकामनाः]।
तन्ममैकं = तो मेरी (भी) एक [तत् मम एकम्]।
अदरिद्राम् = निर्धनता रहित [निर्धनतां बिना]।
एवम् = ऐसा [एतादृशम्]।
वादिनि = कहने पर [कथितः]।
यातोऽस्मि = जा रहा हूँ [गच्छामि ]।
वाक् = वाणी/आवाज [वाणी]।
तस्मात् = उससे।
तरोः = वृक्ष से [वृक्षात्]।
उदभूत् = निकली [निरगच्छत्]।
दिवम् = स्वर्ग/आकाश [स्वर्ग:/आकाशः]।
समुत्पत्य = उड़कर [ उत्पतनं कृत्वा]।
भुवि = पृथ्वी पर [पृथ्व्याम्]।
वसूनि = धन [धनानि]।
दुर्गतः = निर्धन/पीड़ित [दुर्गतिम् आपन्नः]।
सर्वजीवानुकम्पया = सभी जीवों के प्रति कृपा करने की [सर्वजीवेभ्यः कृपया]।
प्रथितम् = प्रसिद्ध हो गया [प्रसिद्धम्]।

अभ्यास प्रश्न

प्रश्न 1. एकपदेन उत्तरं लिखत―
(एक शब्द में उत्तर लिखिए।)
() जीमूतवाहनः कस्य पुत्रः आसीत्?
(जीमूतवाहन किसका पुत्र था?)
उत्तर जीमूतकेतोः।
(जीमूतकेतु का)।

() संसारेऽस्मिन् कः अनश्वरः भवति?
(इस संसार में कौन नष्ट न होने वाला होता है?)
उत्तर― परोपकारः।
(परोपकार)।

() जीमूतवाहनः परोपकारैकफलसिद्धये कम् आराधयति?
(जीमूतवाहन परोपकार रूपी एकमात्र फल को प्राप्त करने के लिए किसकी आराधना करता हैं?)
उत्तर कल्पपादपम्।
(कल्पवृक्ष की)।

() जीमूतवाहनस्य सर्वभूतानुकम्पया सर्वत्र किं प्रथितम्?
(जीमूतवाहन की सभी जीवों के प्रति कृपा करने से सभी जगह क्या प्रसिद्ध हो गई?)
उत्तर― यशः।
(कीर्ति)।

() कल्पतरुः भुवि कानि अवर्षत्?
(कल्पवृक्ष ने पृथ्वी पर किनकी वर्षा की?)
उत्तर वसूनि।
(धन की)।

प्रश्न 2. अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत―
(नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर संस्कृत भाषा के द्वारा लिखो।)
() कञ्चनपुरं नाम नगरं कुत्र विभाति स्म?
(कंचनपुर नामक नगर कहाँ सुशोभित होता था?)
उत्तर कञ्चनपुरं नाम नगरं हिमालयपर्वतस्य शिखरे विभाति स्म।
(कंचनपुर नामक नगर हिमालय पर्वत की चोटी पर सुशोभित होता था।)

() जीमूतवाहनः कीदृशः आसीत्?
(जीमूतवाहन कैसा था?)
उत्तर जीमूतवाहनः महान् दानवीरः सर्वभूतानुकम्पी च आसीत्।
(जीमूतवाहन महान् दानवीर और सभी प्राणियों पर कृपा करने वाला था।)

() कल्पतरोः वैशिष्ट्यमाकर्ण्य जीमूतवाहनः किम् अचिन्तयत्?
(कल्पवृक्ष की विशेषता को सुनकर जीमूतवाहन ने क्या सोचा ?)
उत्तर कल्पतरोंः वैशिष्ट्यमाकर्ण्य जीमूतवाहनः अचिन्तयत्- "अहो! ईदृशम् - अमरपादपं प्राप्यापि पूर्वैः पुरुषैः अस्माकं तादृशं फलं किमपि न प्राप्तम्। किन्तु केवलं कैश्चिदेव कृपणैः कश्चिदपि अर्थः अर्थितः। तदहम् अस्मात् कल्पतरोः अभीष्टं साधयामि" इति।
(कल्पवृक्ष की विशेषता को सुनकर जीमूतवाहन ने सोचा- "अरे खेद है! इस प्रकार के अमरवृक्ष को पाकर भी हमारे पूर्वजों ने वैसा कुछ भी फल प्राप्त नहीं किया। किन्तु केवल कुछ ही अभागों ने थोड़ा-सा (तुच्छ) ही धन माँगा। तो मैं इस कल्पवृक्ष से मनचाहे को पूरा करूँगा।")

() हितैषिणः मन्त्रिणः जीमूतवाहनं किम् उक्तवन्तः?
(हितैषी मन्त्री जीमूतवाहन से क्या बोले?)
उत्तर हितैषिणः मन्त्रिणः जीमूतवाहनम् उक्तवन्तः- "युवराज! योऽयं सर्वकामदः कल्पतरुः तवोद्याने तिष्ठति स तव सदा पूज्यः। अस्मिन् अनुकूले स्थिते सति शक्रोऽपि अस्मान् बाधितुं न शक्नुयात्" इति।
(हितैषी मन्त्री जीमूतवाहन से बोले- "युवराज ! जो यह सभी कामनाओं को पूरा करने वाला कल्पवृक्ष तुम्हारे उद्यान में खड़ा है वह तुम्हारे द्वारा सदैव पूज्य है। इसके अनुकूल रहने पर इन्द्र भी हमें बाधा नहीं पहुँचा सकता।")

() जीमूतवाहनः कल्पतरुम् उपगम्य किम् उवाच?
(जीमूतवाहन कल्पवृक्ष के पास पहुँचकर क्या बोला?)
उत्तर जीमूतवाहनः कल्पतरुम् उपगम्य उवाच - "देव! त्वया तस्मत्पूर्वेषाम् अभीष्टाः कामाः पूरिताः तन्यमैकं कामं पूरय। यथा पृथिवीम् अदरिद्राम् पश्यामि, तथा करोतु देव" इति।
(जीमूतवाहन कल्पवृक्ष के पास जाकर बोला- "हे देव! आपके द्वारा हमारे पूर्वजों की मनचाही इच्छाओं को पूरा किया गया है, तो मेरी भी एक इच्छा को पूरा कर दीजिए जिससे इस संसार को निर्धनता रहित देख सकूँ, हे देव! वैसा कुछ कीजिए।")

प्रश्न 3. अधोलिखितवाक्येषु स्थूलपदानि कस्मै प्रयुक्तानि?
(नीचे लिखे वाक्यों में मोटे शब्द किसके लिए प्रयुक्त हुए हैं?)
() तस्य सानोरूपरि विभाति कञ्चनपुरं नाम नगरम् ।
उत्तर- हिमवते।

() राजा सम्प्राप्तयौवनं तं यौवराज्ये अभिषिक्तवान्।
उत्तर- जीमूतवाहनाय

() अयं तव सदा पूज्यः।
उत्तर- कल्पवृक्षाय।

() तात! त्वं तु जानासि यत् धनं वीचिवच्चञ्चलम्।
उत्तर- जीमूतकेतवे।

प्रश्न 4. अधोलिखितानां पदानां पर्यायपदं पाठात् चित्वा लिखत―
(नीचे लिखे शब्दों के पर्याय शब्द पाठ से चुनकर लिखो।)
उत्तर
() पर्वतः - नगेन्द्रः
() भूपतिः - राजा
() इन्द्रः - शक्रः
() धनम् - अर्थः, वसु
() मञ्छितम् - अभीष्टतम्, अर्थितम्
() समीपम् - अन्तिकम्
() धरित्रीम् - पृथ्वीम्
() कल्याणम् - हितम्
() वाणी - वाक्
() वृक्षः - तरुः, पादपः

प्रश्न 5. '' स्तम्भे विशेषणानि '' स्तम्भे च विशेष्याणि दत्तानि। तानि समुचित योजयत―
('क' स्तम्भ में विशेषण और 'ख' स्तम्भ में विशेष्य दिये गये हैं। उनको ठीक से मिलाओ।)
उत्तर
कुलक्रमागतः - कल्पतरुः
दानवीरः - जीमूतवाहनः
हितैषिभिः - मन्त्रिभिः
वीचिवच्चञ्चलम् - धनम्
अनश्वरः - परोपकारः

प्रश्न 6. स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत
(मोटे शब्दों के आधार पर प्रश्न निर्माण करो।)
() तरोः कृपया सः पुत्रम् प्राप्नोत् ।
(वृक्ष की कृपा से उसने पुत्र को प्राप्त किया।)
प्रश्न निर्माणम् - कस्य कृपया सः पुत्रम् प्राप्नोत्?
(किसकी कृपा से उसने पुत्र को प्राप्त किया?)

() सः कल्पतरवे न्यवेदयत्।
(उसने कल्पवृक्ष से निवेदन किया।)
प्रश्न निर्माणम् - सः कस्मै न्यवेदयत्?
(उसने किससे निवेदन किया?)

() धनवृष्ट्या कोऽपि दरिद्रः नातिष्ठत्।
(धनवर्षा से कोई भी निर्धन नहीं रहा।)
प्रश्न निर्माणम् - कथं कोऽपि दरिद्रः नातिष्ठत्?
(कैसे कोई भी निर्धन नहीं रहा?)

() कल्पतरुः पृथिव्यां धनानि अवर्षत्।
(कल्पवृक्ष ने पृथ्वी पर धन की वर्षा की।)
प्रश्न निर्माणम् - कल्पतरुः कुत्र धनानि अवर्षत्?
(कल्पवृक्ष ने कहाँ धन की वर्षा की?)

() जीवानुकम्पया जीमूतवाहनस्य यशः प्रासरत्।
(जीवों के प्रति कृपा से जीमूतवाहन की कीर्ति फैली।)
प्रश्न निर्माणम् - कथं जीमूतवाहनस्य यशः प्रासरत्?
(कैसे जीमूतवाहन की कीर्ति फैली?)

प्रश्न 7. (क) "स्वस्ति तुभ्यम्" स्वस्ति शब्दस्य योगे चतुर्थी विभक्तिः भवति। इत्यनेन नियमेन अत्र चतुर्थी विभक्तिः प्रयुक्ता। एवमेव (कोष्ठकगतेषु पदेषु) चतुर्थी विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत―
("तुम्हारा कल्याण हो" स्वस्ति शब्द के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। इस नियम से यहाँ चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त है। इसी प्रकार से (कोष्ठक में दिये शब्दों में) चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग करके रिक्त स्थान को पूरा करें।)
उत्तर
() स्वस्ति राज्ञे (राजा)
() स्वस्ति प्रजायै/प्रजाभ्यः (प्रजा)
() स्वस्ति छात्राय/छात्रेभ्यः (छात्र)
() स्वस्ति सर्वजनेभ्यः (सर्वजन)

() कोष्ठकगतेषु पदेषु पष्ठीं विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत-
(कोष्ठक में दिये गये शब्दों में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग करके रिक्त स्थानों को पूरा करो-)
उत्तर―
() तस्य गृहस्य उद्याने कल्पतरुः आसीत्। (गृह)
() सः पितुः अन्तिकम् अगच्छत्। (पितृ)
() जीमूतवाहनस्य सर्वत्र यशः प्रथितम्। (जीमूतवाहन)
() अयं कस्य तरुः। (किम्)

आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।
Thank you.
R. F. Tembhre
(Teacher)

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