ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतम्।
शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतम्।
अदीनाः स्याम शरदः शतम्। भूयश्च शरदः शतात् ॥1॥
(यजुर्वेद 36.24)
भावार्थः ― देवों द्वारा निरूपित यह शुक्ल वर्ण का नेत्र रूप (सूर्य) पूर्व दिशा में ऊपर उठ चुका है। हम सब सौ वर्षो तक देखते रहें, सौ वर्षों तक जीते रहें, सौ वर्षों तक सुनते रहें, सौ वर्षों तक शुद्ध रूप से बोलते रहें, सौ वर्षों तक स्वावलम्बी (अदीन) बने रहें और यह सब सौ वर्षो से भी अधिक चलता रहे।
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतो-
ऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधे अस-
न्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे ॥2॥
(ऋग्वेद 1.89.1)
भावार्थः ― हमारे पास चारों ओर से ऐसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, उन्हें कहीं से बाधित न किया जा सके (अपरीतासः) एवम् अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले (उद्भिदः) हों, प्रगति को न रोकने वाले (अप्रायुवः) तथा सदैव रक्षा में तत्पर देवगण प्रतिदिन हमारी वृद्धि के लिए तत्पर रहें।
आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।
Thank you.
R. F. Tembhre
(Teacher)
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