संस्कृते गीतपरम्परा अति समृद्धा प्राचीना च जनैःमनसिदृढ सङ्कल्पं कृत्वा कथमाचरणीयमिणत्यस्मिमन् गीते वर्णितम्, गीतेSस्मिन् जनेषु परोपकारभावनोत्पादनं दरीदृश्यते।
हिन्दी अनुवाद― संस्कृत में गीत की परंपरा समृद्ध और प्राचीन रही है। जनसमुदाय को मन से दृढ़ संकल्पित करके किस प्रकार का आचरण करना चाहिए, ऐसा इस गीत में वर्णित है। इस गीत में जनसमूह में परोपकार की भावना पैदा करना भली प्रकार से दर्शित है।
लोकहितंममकरणीयम्
(हिन्दी अनुवाद)
मनसा सततं स्मरणीयम्, वचसा सततं वदनीयम्।
लोकहितं मम करणीयम्, लोकहितं मम करणीयम्।।1।।
हिन्दी अनुवाद― मुझे पूर्ण मनोयोग से सदैव स्मरण करना चाहिए, मुझे वाणी से सदैव बोलना चाहिए, मुझे जग का कल्याण करना चाहिए, मुझे जनहित (लोकहित) करना चाहिए।
इस पद में अर्थ निहित है कि मुझे मन तथा वाणी से संसार का कल्याण करना चाहिए।
न भोगभवने रमणीयम्, न च सुखशयने शयनीयम्।
अहर्निशं जागरणीयम्, लोकहितं मम करणीयम्।।2।।
हिन्दी अनुवाद― मुझे एश्वर्ययुक्त (ऐशोआराम से युक्त) भवन (घर) में निवास नहीं करना चाहिए और न ही आरामदायक बिस्तर पर विश्राम करना चाहिए। मुझे तो दिन-रात जागृत (जगा हुआ) रहना चाहिए। इस तरह से मुझे जगत का कल्याण करना चाहिए।
इस पद में आशय है कि मुझे भोगविलास युक्त भवन और आरामप्रदायक बिस्तर में न सोकर दिन रात सजग रहते हुए मेहनत से इस संसार का कल्याण करना चाहिए।
न जातु दुःखं गणनीयम्, न च निजसौख्यं मननीयम्।
कार्यक्षेत्रे त्वरणीयम्, लोकहितं मम करणीयम्।।3।।
हिन्दी अनुवाद― मुझे कभी भी अपने दुःखों को नहीं गिनना चाहिए और न ही अपने सुख का चिंतन-मनन करना चाहिए। अपने कार्यक्षेत्र के अपने कार्यों को करने में शीघ्रता करनी चाहिए तथा मुझे इस जग का कल्याण करना चाहिए।
इस पद में आशय है कि मुझे अपने सुख-दुख की गिनती न करते हुए अपने कार्य क्षेत्र में सभी कार्यों को शीघ्रता से करते हुए जनहित करना चाहिए।
दुःखसागरे तरणीयम्, कष्टपर्वते चरणीयम्।
विपत्ति-विपिने भ्रमणीयम्, लोकहितं मम करणीयम्।।4।।
हिन्दी अनुवाद― मुझे दुःख रूपी सागर में तैरना चाहिए, कष्ट रूपी पर्वत पर चढ़ना चाहिए, कठिनाई रूपी वन में भ्रमण करना चाहिए और मुझे इस जगत का कल्याण करना चाहिए।
इस पद में आशय है कि हमें सुख भोग न करते हुए उन कष्टों को सहन करना स्वीकार करना चाहिए जो जगत कल्याण के मार्ग में आते हैं।
गहनारण्ये घनान्धकारे, बन्धुजना ये स्थिता गह्वरे।
तत्र मया सञ्चरणीयम्, लोकहितं मम करणीयम्।।5।।
हिन्दी अनुवाद― हमारे जो बंधुजन (स्वजन) घने अंधकारयुक्त जंगलों की गुफाओं में रहते हैं, वहाँ मुझे जाना चाहिए और मुझे इस जगत का कल्याण करना चाहिए।
इस पद में कहा गया है कि हमारे भाई बंधुजन जो ऐसे स्थलों में रहते हैं जहाँ कठिनाई से जीवन बीत रहा है अर्थात जो कठिन परिस्थितियों में रहते हैं जो उन तक पहुँच कर उनका उद्धार करते हुए हमें इस जगत का कल्याण करना चाहिए।
शब्दार्थ
मनसा = मन से या मनोयोग से।
वचसा = वाणी से।
वदनीयम् = बोलना चाहिए।
करणीयम् = करना चाहिए।
अहर्निशं = दिन-रात।
जातु = कदाचित कभी।
त्वरणीयम् = शीघ्रता करनी चाहिए।
दुःखसागरे = दुख रूपी सागर में।
तरणीयम् = तैरना चाहिए।
कष्टपर्वते = कष्ट रूपी पर्वत पर।
चरणीयम् = चढ़ना चाहिए।
विपत्ति-विपिने = मुसीबतों से भरे वन में।
गहनारण्ये = गहन (घने) वन में।
गह्वरे = गुफा में।
सञ्चरणीयम् = जाना चाहिए।
अभ्यास
1. एकपदेन उत्तरं लिखत-
(एक शब्द में उत्तर लिखिए)
(क) मनसा किं करणीयम्?
उत्तरम्― स्मरणीयम्।
(ख) वचसा किं करणीयम्?
उत्तरम्– वदनीयम्।
(ग) कस्मिन् न रमणीयम्?
उत्तरम्― भोगभवने।
(घ) किं न गणनीयम्?
उत्तरम्― दुःखमं।
(ङ) किं न मननीयम्?
उत्तरम्― निजसौख्यम्।
2. एकवाक्येन उत्तरं लिखत―
(एक वाक्य में उत्तर लिखिए।)
(क) कुत्र त्वरणीयम्?
उत्तरम्― कार्यक्षेत्रे त्वरणीयम्।
(ख) कस्मिन् तरणीयम्?
उत्तरम्― दुःखसागरे तरणीयम्।
(ग) कुत्र चरणीयम्?
उत्तरम्― कष्टपर्वते चरणीयम्।
(घ) विपत्ति-विपिने किं करणीयम्?
उत्तरम्― विपत्ति-विपिने भ्रमणीयम्।
(ङ) मम किं करणीयम्?
उत्तरम्― मम लोकहितं करणीयम्।
3. उचितं योजयत—
(उचित जोड़ी मिलान कीजिए।)
―― अ ――———―― ब
(क) मनसा ― सततं वदनीयम्
(ख) वचसा ― सततं स्मरणीयम्
(ग) भोगभवने ― जागरणीयम्
(घ) लोकहितं ― न रमणीयम्
(ङ) अहर्निशं ― करणीयम्
उत्तरम्―
―― अ ――——―― ब
(क) मनसा – सततं स्मरणीयम्
(ख) वचसा – सततं वदनीयम्
(ग) भोगभवने – न रमणीयम्
(घ) लोकहितं – करणीयम्
(ङ) अहर्निशं – जागरणीयम्
4. शुध्दवाक्यानां समक्षम् 'आम्' अशुद्धवाक्यानां समक्षं 'न' इति लिखत―
(शुद्ध वाक्य के सामने 'आम्' और अशुद्ध वाक्य के सामने 'न' लिखिए।)
(क) कष्टपर्वते चरणीयम्। (आम् )
(ख) दुःखसागरे न तरणीयम्। (न)
(ग) न जातु दुःखं गणनीयम्। (आम्)
(घ) विपत्ति-विपिने न भ्रमणीयम्। (न)
(ङ) अहर्निशं जागरणीयम्। (आम्)
5. उचितपदेन रिक्तस्थानं पूरयत―
(उचित शब्द से रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए।)
(क) बन्धुजना ये स्थिता गह्वरे। (सागरे/गह्वरे)
(ख) लोकहितं करणीयम्। (वदनीयम्/ करणीयम्)
(ग) भोगभवने न रमणीयम् । (रमणीयम्/न रमणीयम्)
(घ) कार्यक्षेत्रे त्वरणीयम्। (तरणीयम्/त्वरणीयम्)
(ङ) कष्टपर्वते चरणीयम्। (करणीयम्/चरणीयम्)
6. नामोल्लेखपूर्वकं समासविग्रहं कुरुत―
(समास का नाम बताते हुए समास विग्रह कीजिए।)
(क) लोकहितम्
(ख) भोगभवने
(ग) कार्यक्षेत्रे
(घ) दुःखसागरे
(ङ) कष्टपर्वते
उत्तरम्―
― समस्त पदम् ― समास-विग्रहः ― समासस्य नाम
(क) लोकहितम् ― लोकस्य हितम् ― तत्पुरुषः
(ख) भोगभवने ― भोगस्य भवने ― तत्पुरुषः
(ग) कार्यक्षेत्रे ― कार्यस्य क्षेत्रे ― तत्पुरुषः
(घ) दुःखसागरे ― दुःखस्य सागरे ― तत्पुरुषः
(ङ) कष्टपर्वते ― कष्टस्य पर्वते ― तत्पुरुषः
7. रिक्तस्थानं पूरयत―
(रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए।)
(क) न जातु दुःखं गणनीयम्,न च निजसौख्यं मननीयम्।
कार्यक्षेत्रे त्वरणीयम्, लोकहितं मम करणीयम्।।
(ख) दुःखसागरे तरणीयम्, कष्टपर्वते चरणीयम्।
विपत्ति-विपिने भ्रमणीयम्, लोकहितं मम् करणीयम्।।
8. उदाहरणानुसारं धातुं प्रत्ययं च पृथक्करुत―
(उदाहरण के अनुसार धातु और प्रत्यय को अलग कीजिए।)
उदाहरणम् ― धातुः + प्रत्ययं
― स्मरणीयम्- स्मृ + अनीयर्
(क) करणीयम्- कृ + अनीयर्
(ख) रमणीयम्- रम् + अनीयर्
(ग) शयनीयम्- शी + अनीयर्
(घ) जागरणीयम्- जागृ + अनीयर्
(ङ) गणनीयम्- गण् + अनीयर्
(च) मननीयम्- मन् + अनीयर्
(छ) त्वरणीयम्- त्वर् + अनीयर्
(ज) तरणीयम्- तृ + अनीयर्
(झ) भ्रमणीयम्- भ्रम् + अनीयर्
(ञ) सञ्चरणीयम्- सञ्चर् + अनीयर्
9. "मम कर्तव्यम्" इति विषयमवलम्ब्य संस्कृते दशवाक्यानि लिखत।
(मेरा कर्तव्य इस विषय पर संस्कृत में 10 वाक्य लिखिए)
उत्तरम्―
1. लोकहितं मम कर्त्तव्यम्।
2. देशसेवां करणम् मम् कर्त्तव्यम्।
3. सर्वजनहितं मम कर्त्तव्यम्।
4. सर्वजनसम्मानं मम कर्त्तव्यम्।
5. सर्वैः सह मधुरभाषणं मम कर्त्तव्यम्।
6. समयेन विद्यालयगमनं मम कर्त्तव्यम्।
7. गुरुजनसम्मानं मम कर्त्तव्यम्।
8. ध्यानेन पठनम् मम कर्त्तव्यम्।
9. राष्ट्रगानसम्मानं मम कर्त्तव्यम्।
10. राष्ट्रध्वजसम्मानं मम कर्त्तव्यम्।
10. "लोकहितम मम करणीयम्" इत्यस्मिन् पाठे आगतानि अव्ययानि चित्वा लिखत।
("लोकहितम मम करणीयम्" पाठ में आए अव्यय शब्दों को चुनकर लिखिए।)
उत्तरम्― (क) सततम् (लगातार/सतत)
(ख) न (नहीं)
(ग) च (और)
(घ) अहर्निशम्
(ङ) जातु
(च) दुःखम्
(छ) निज
(ज) तत्र (वहाँ)
योग्यताविस्तारः
1. 'लोकहित मम करणीयम् एतत् गीत लयबद्धं गायत"
2. "लोकहितं मम करणीयम्" इत्यस्मिन् पाले आगतानि सप्तमीविभक्त्येकवचनरूपाणि चित्वा लिखत।
3. "लोकहितं मम करणीयम् अनेन सह अन्यानि अपि संस्कृतगीतानि कण्ठस्थं कुरुत।
सर्वभूतहिते रताः।
भावार्थ― जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।
Thank you.
R. F. Tembhre
(Teacher)
infosrf