१. संस्कृत काव्य-रचना के प्रकार— संस्कृत में काव्य-रचना दो प्रकार की मानी गई है—
गद्य (Prose)
पद्य (Verse) (छन्दोबद्ध रचना)।
२. छन्द निर्माण— छन्द शास्त्र में छन्द निर्माण के नियमों पर विचार किया गया है। संस्कृत के छन्द वर्णों या मात्राओं से नियन्त्रित होते हैं, उदात्त स्वर से नहीं।
३. पाद या चरण (Quarter)— एक पद्य (Stanza) में चार पंक्तियाँ होती हैं। उनको पाद या चरण (Quarter) कहते हैं। प्रत्येक पाद में अक्षरों (या वर्णों) या मात्राओं की गणना की जाती है।
(क) अक्षर (वर्ण)— अक्षर या वर्ण शब्द के उतने अंश को कहते हैं जितना कि उच्चारण के एक प्रयत्न से उच्चरित होता है, अर्थात् एक या अनेक व्यंजनों के सहित अथवा व्यंजनों से रहित एक स्वर वर्ण।
(ख) मात्रा— एक ह्रस्व स्वर के उच्चारण में जितना समय लगता है, उतने समय के परिमाण को एक मात्रा कहते हैं।
४. ह्रस्व एवं दीर्घ स्वर— ह्रस्व स्वर को लघु कहते हैं और दीर्घ स्वर को गुरु।
(क) अ, इ, उ, ऋ और लृ, ये लघु (ह्रस्व) स्वर हैं और आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ और औ, ये गुरु (दीर्घ) स्वर हैं। ह्रस्व स्वर के बाद अनुस्वार, विसर्ग या कोई संयुक्त व्यंजन होगा तो उस ह्रस्व को गुरु माना जाता है। जैसे— गत्व, अच्छ आदि।
५. पाद का अन्तिम स्वर ह्रस्व हो या दीर्घ, वह छन्द की आवश्यकता के अनुसार ह्रस्व या दीर्घ दोनों माना जा सकता है। जैसे इन स्थानों पर— वक्ष:- स्वली रक्षतु सा जगन्ति, आदि (विक्रमो० १), तस्याः खुरन्यासपवित्रपांसुम् (रघु० २-२ )।
६. वर्णवृत्तों के प्रत्येक पाद गणों में विभवत होते हैं। प्रत्येक गण में ३ वर्ण होते हैं। ये गण ८ है।
इनके नाम है— म, न, भ, य, ज, र, स और त निम्नलिखित श्लोक में इनके नाम और इनके ह्रस्व या दीर्घ वर्णों का क्रम दिया गया है।
मस्त्रिगुरुस्त्रिलघुश्च नकारो, भादिगुरुः पुनरादिलघुर्यः।
जो गुरुमध्यगतो रलमध्यः, सोऽन्तगुरुः कथितोऽन्तलघुस्तः।
अर्थात् म या मगण में तीनों अक्षर गुरु होते हैं, नगण में तीनों लघु भगण में पहला अक्षर गुरु होता है, यगण में पहला अक्षर लघु होता है, जगण का बीच का अक्षर गुरु होता रगण का बीच का अक्षर लघु होता है, सगण का अन्तिम अक्षर गुरु होता है और तगण का अन्तिम अक्षर लघु होता है। - लघु वर्ण के लिए (।) (या -) चिह्न है और गुरु वर्ण के लिए (ऽ) (या --) चिह्न है।
इन चिह्नों के अनुसार गणों को इस प्रकार लिखा जाएगा —
म ऽऽऽ न ।।। भ ऽ।। य ।ऽऽ
ज ।ऽ। र ऽ। स ।।ऽ त ऽऽ।
इसी प्रकार पाद के अन्त में लघु के लिए ल वर्ण प्रयुक्त होता है और गुरु के लिए ग।
७. मात्रिक छन्दों में प्रत्येक पाद की मात्राओं की गणना की जाती है। प्रत्येक पाद को ४, ४ मात्राओं में विभक्त करते हैं और इन चार मात्राओं को मात्रागण कहते हैं। लघु (ह्रस्व) स्वर की एक मात्रा गिनी जाती है और गुरु (दीर्घ) की दो मात्राएँ। मात्रागण ५ हैं। इनको चिह्नों के अनुसार इस प्रकार लिखा जाएगा—
म ऽऽऽ स ।।ऽ ज ।ऽ। भ ऽ।। न ।।।
८. पद्य के प्रकार— पद्य दो प्रकार के होते हैं - वृत्त या जाति।
(क) वृत्त— जिन छन्दों के प्रत्येक पाद में गणों के अनुसार वर्णों की गणना की जाती है, उन्हें वृत्त कहते हैं।
(ख) जाति— जिन छन्दों के प्रत्येक पाद में मात्रागणों के अनुसार मात्राओं की गणना की जाती है, उन्हें जाति कहते हैं।
टीप — उपयुक्त इलोक के स्थान पर निम्नलिखित श्लोक को सरलता से स्मरण किया जा सकता है—
आदिमध्यावसानेषु यरता यान्ति लाघवम्भ।
भजसा गौरवं यान्ति, मनौ तु गुरुलाघवम॥
९. वृत्त के प्रकार— वृत्त ३ प्रकार के हैं—
(१) समवृत्त— जिनमें चारों पदों में वर्णों की संख्या बराबर होती है।
(२) अर्धसमवृत्त— जिनमें १, ३ और २, ४ पाद समान होते हैं।
(३) विषम्— जिनमें प्रत्येक पाद में वर्णों की संख्या विषम होती है।
१०. समवृत्तों के वर्ग— समवृत्तों के सामान्यतया २६ वर्ग स्वीकार किए गए हैं। यह वर्गीकरण इस बात पर निर्भर है कि पद्य के एक पाद में एक अक्षर से लेकर २६ अक्षर तक हो सकते हैं। इनमें से प्रत्येक वर्ग में कितने ही छन्द हैं। वे गणों के क्रम के भेद के आधार पर हैं और सभी छन्द एक दूसरे से भिन्न प्रकार के होते हैं।
११. यति का अभिप्राय— संस्कृत में यति का अभिप्राय है कि पद्य के एक पाद के पढ़ने में कितने अक्षरों के बाद अल्प-विराम या थोड़ा विश्राम होता है।
१२. यहाँ पर अधिक प्रचलित छन्दों का ही विवरण दिया गया है, साथ ही उनके गणों का भी निर्देश किया गया है। अप्रचलित छन्दों तथा वैदिक और प्राकृत के छन्दों का उल्लेख नहीं किया गया है ।
विशेष टीप— छन्दः शास्त्र का सबसे प्राचीन लेखक पिंगलाचार्य है। उसके ग्रन्थ का नाम पिंगल छन्दः शास्त्र है। यह सूत्रों में लिखा हुआ है। इसमें ८ अध्याय हैं। अग्निपुराण में भी इस विषय का पूर्ण विवेचन है। इस अध्याय का विवरण मुख्यतया वृत्तरत्नाकर और छन्दोमंजरी पर आश्रित है।
आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।
Thank you.
R. F. Tembhre
(Teacher)
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